जीवा एक प्रवाह है। वह रुकता नहीं, बहता रहता है। जो बहता है, वही प्रवाह होता है। जिसमें ठहराव है, गतिहीनता है, वह प्रवाह नहीं हो सकता। प्रवाह स्वच्छता का प्रतीक है, जबकि ठहराव में गंदगी की संभावना बनी रहती है। प्रवाह में जीवनी शक्ति है, जबकि ठहराव में अस्तित्व का लोप संभव है। ऐसी स्थिति में प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन के प्रवाह को आगे बढ़ाना चाहेगा। सवाल एक ही है कि जीवन कैसा हो?  भारतीय संस्कृति में उस जीवन को प्रशस्त जीवन माना गया है जो शांत हो, संतुष्ट हो, पवित्र हो और सानंद हो। शांति, संतुष्टि, पवित्रता और आनंद जीवन की महान उपलब्धियां हैं। इनका संबंध बाह्य पदार्थों से नहीं, व्यक्ति की अपनी वृत्तियों से है। पदार्थों का ढेर लग जाए तो भी वहां शांति का जन्म नहीं हो सकता। संतोष की प्राप्ति भी पदार्थ से नहीं हो सकती।   
संसार की संपूर्ण सुख-सुविधाएं कदमों में आकर बिछ जाएं, फिर भी तोष का अनुभव नहीं होता। तीसरा तत्व है पवित्रता। उसका पदार्थ के साथ कोई रिश्ता ही नहीं है। पदार्थ के साथ जितना गहरा अनुबंध होता है, पवित्रता पर उतना ही सघन आवरण आ जाता है। पवित्रता नहीं है तो आनंद कहां से आएगा? आनंद का निवास तो चित्त की पवित्रता में ही होता है। ऐसी स्थिति में सार्थक जीवन जीने की आकांक्षा अधिक दूभर हो जाती है।  
शांति का उत्स संयम है। जो लोग संयम से जीते हैं, विशिष्ट शांति का अनुभव करते हैं। स्वतंत्रता से संतोष की प्राप्ति होती है। सोने के पिंजरे में कैद पंछी को कितने ही मेवे-मिष्ठान मिल जाएं, वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता। परतंत्रता चाहे बाहर की हो, या भीतर की; वहां आत्मतोष नहीं मिल सकता। जीवन में पवित्रता तब तक नहीं उतर सकती, जब तक साधन-शुद्धि न हो।  आनंद का अनुभव उस व्यक्ति को होता है जो स्वस्थ रहता है। इस प्रकार का जीवन भारतीय संस्कृति का जीवन है। ऐसा जीवन कोई भी जी सकता है, बशत्रे कि वह इतना उदात्त जीवन जीना चाहे। जीवन की सार्थकता और व्यर्थता उसकी शैली पर निर्भर है।