"सोशल मीडिया एक ऐसा सोख्ता बन गया है जो युवाओं का गुस्सा, प्रतिरोध, विद्रोह, आंदोलन, विचार सबकुछ सोखकर कर उन्हें दिमागी तौरपर सफाचट कर रहा है। छात्रों व युवाओं के सम्मुख एक वैकल्पिक संस्कृति रच दी गई है कि वे वहीं मगन है"
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आभासी दुनिया में गत्ते की
 तलवार भाँजती 'युवाशक्ति'

प्रजातंत्र विचार/जयराम शुक्ल

छात्र जीवन में हम लोग राजनीति के बारे में खूब चर्चा करते थे। यह राजनीति कालेज और विश्वविद्यालय के परिसर के बाहर की भी होती थी। मँहगाई, बेरोजगारी समेत देश के वे तमाम मुद्दे जो उस समय उबाल पर होते थे। 

हमें नारे बहुत आकर्षित करते थे। जब स्कूल में थे तब जयप्रकाश नारायण का आंदोलन पूरे सबाब पर था। उन दिनों में बालमंडली बनाकर जुलूस निकालते  और खूब नारे लगाते थे। 

लोहिया, नरेन्द्र देव और जयप्रकाश का न सिर्फ नाम सुना था बल्कि उनके बारे में इतना जानते थे कि दस मिनट बोल सकें। ये संस्कार स्कूल से मिले थे क्योंकि हर महापुरुषों की जयंती व पुण्यतिथियों में भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थीं। स्वतंत्रता आंदोलन और समाज सुधार आंदोलनों पर भी परिचर्चाएं होती थीं।

वो सत्तर का दशक था..हम लोग सड़कों में जुलूस निकालकर कर नारे लगाते थे..रोजी रोटी दे न सके वो सरकार निकम्मी है..जो सरकार निकम्मी है वो सरकार बदलनी है..। ..खादी ने मखमल से ऐसी साठगांठ कर डाली है,  टाटा बिडला डालमिया की बरहों मास दिवाली है..। ...अब तक जिसका खून न खौला, खून नहीं वो पानी है..। 

जब इमरजेंसी लगी तो पता लगा कि ऐसा नारा लगाने वाले सभी लोगों को जेल में बंद कर दिया गया। हम बच्चे भी सहम गए। एक अजीब तरीके का सन्नाटा था। गुन्डों और नेताओं को एक भाव तौला जाता था। दोनों के साथ पुलिस एक जैसा व्यवहार करती थी। 

हायरसेकंडरी में पहुंचे तब इमरजेंसी लगी थी। स्कूलों में संजय गाँधी के सूत्र बताए जाते थे। एक ही जादू .दूरदृष्टि पक्का इरादा, नसबंदी,वृक्षारोपण स्कूल की दीवारों पर ऐसे नारे लिखे थे। मुझे याद है कि स्कूल में एक भाषण प्रतियोगिता आयोजित की गई थी..विषय था आपातकाल एक अनुशासन पर्व है। 

एक साल के भीतर इतना गड्डमड्ड हो गया कि तय कर पाना मुश्किल था कि नारे लगाने वाले गलत थे कि डंडा मारकर जेल भेजने वाले..। उन्हीं दिनों प्रदेश के मुखयमंत्रीजी शहर आये तो हम बच्चों की स्कूल बंद करके उन्हें अगवानी के लिए मवेशियों की तरह हाँककर ले जाया गया था।

 हवाई अड्डे में भूखे प्यासे हम बच्चों को कहा गया था कि जब नेता जी आएं तो उनपर फूल बरसाना। भूख और प्यास ने जिंदगी में पहली बार नेता नाम से इतनी नफरत पैदा की।  अखबार, रेडियो सब सरकार की पुण्याई का ही बखान करते थे फिर भी तरुण मन में लगता था कि यह सब झूठ है,बकवास है,अत्याचार हो रहा है,लोग सताए जा रहे हैं।

 मैं चाहता हूँ आज का स्कूली छात्र भी राजनीति की कम से कम इतनी समझ रखे,जरूरत पडे़ तो बोले व हस्तक्षेप करे।

सतहत्तर में जब इमरजेंसी हटी और फिर जो दौर शुरू हुआ उसकी असली ताकत,तरुण, युवा और छात्र ही रहे। स्कूल और कालेज के छात्रों ने पहली बार खुलकर चुनाव में भागीदारी निभाई। भले ही मताधिकार न रहा हो पर पर्चा, बुलेटिन बाँटने और दीवारों पर नारे लिखने का काम छात्रों व युवाओं ने किया और पूरा माहौल बनाया।

 ये वृत्तांत मैंने इसलिए बताया क्योंकि आज की चिंतनीय स्थिति यह है कि छात्रों और युवाओं को साजिशन राजनीति और सामाजिक सरोकारों से अलग किया जा रहा है। 

सोशल मीडिया के जरिये एक ऐसी आभासी दुनिया रची जा रही है कि जिस उम्र में कभी तख्ता पलट तक की ताकत हुआ करती थी, राजनीति में वे युवातुर्क कहलाते थे, उस उम्र में वे या तो सोशल मीडिया के ट्रोलर हैं या शिगूफे और झूठ फैलाने के औजार।

सोशल मीडिया एक ऐसा सोख्ता बन गया है जो युवाओं का गुस्सा, प्रतिरोध, विद्रोह, आंदोलन, विचार सबकुछ सोखकर कर उन्हें दिमागी तौरपर सफाचट कर रहा है। छात्रों व युवाओं के सम्मुख एक वैकल्पिक संस्कृति रच दी गई है कि वे वहीं मगन है।

 इन सब बातोँ को इतनी शिद्द्त से महसूस कर पाता हूँ वो इसलिए कि जिस विन्ध्यक्षेत्र से मेरा नाता है वहां के युवातुर्को ने अपने जमाने में सत्ता के खिलाफ विद्रोह और आंदोलनों का का इतिहास रचा है। यहां भारत छोड़ो आंदोलन की कमान बुजुर्गों ने नहीं स्कूली, कालेजी छात्रों ने संभाली थी। 

उन्नीस साल के छात्र पद्मधर सिंह शहीद हुए थे। स्कूली छात्रों ने गिरफ्तारी दी। यह जज्बा सन् 52 के प्रथम आम चुनाव में भी कायम रहा। समाजवादी दल के प्रायः सभी विधायक ऐसे चुने गए जिनकी उमर 24  से27 वर्ष के बीच की थी।

 तीन चार के खिलाफ तो कम उम्र में विधायक चुने जाने का मुकदमा भी चला। इसी उम्र में ये युवातुर्क समाजवादी दल की राष्ट्रीयकार्यकारिणी में भी रहे।
अब इस आयुवर्ग का युवा क्या कर रहा है एक सरसरी नजर तो डालिये।

नब्बे के बाद तो दूसरा युग ही शुरू हो गया जो अब अपने उच्च विकृत रूप में है। युवाओं की बात तो सभी राजनीतिक दल करते हैं पर उसे झांसे में रखने के लिये। आज फिर मँहगाई, बेरोजगारी का सवाल भीषण स्वरूप में सामने खड़ा है। 

उस युवा से क्या उम्मीद करना जो रजाई ओढे रात रात भर सोशलमीडिया वाँर में भिडा़ है। एक दूसरे  को गाली देने, मजाक बनाने ट्रोल करने में। जब याद करता हूँ भगत सिंह को और देखता हूँ इस पीढी के नौजवानों को आज, तो लगता है कि क्या ये उसी क्राँतिपुंज के वंशज हैं जिसने चौबीस साल की उम्र में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला के रख दी। 

दूसरी ओर ये हैं सरकारों को अपने बाजिव हक के लिए भी नहीं हिला पा रहे। कि पद खाली हैं नौकरी दो, कक्षाएं रिक्त हैं शिक्षक दो, कैसे जिएं मँहगाई पर लगाम दो। आभासी दुनिया से बाहर निकलो प्यारो..वक्त तुम्हें आवाज़ दे रहा है..युग की आहट सुनो।

संपर्कः..8225812813