हमारे लोकजीवन में शगुन-अपशगुन का बड़ा महत्व है। घर में वधु प्रवेश, पुत्र-पुत्री रत्नों की प्राप्ति से लेकर मेहमानों के आने के बाद की शुभ-अशुभ घटनाओं को इसी नजरिए से देखा जाता है। राजनीति में तो शगुन- अपशगुन को बड़ी ही गंभीरता से लिया जाता है। कैबिनेट मीटिंग भले ही छूट जाए पर किसी बिल्ली ने रास्ता काट दिया तो मंत्रीजी का काफिला वहीं जाम। इसलिये हम देखते हैं कि नेताओं के साथ डाक्टर, लीगल एडवाइजर से ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका ज्योतिषियों और टोटका विशेषज्ञों की होती है। मुझे लगता है कि नरेश अग्रवाल के भाजपा प्रवेश को लेकर टोटका विशेषज्ञों और ज्योतिषियों की राय नहीं ली गई होगी शायद इसीलिये उनके आते ही भाजपा की राजनीति में पुलहचरण मच गया। 

यह निष्कर्ष मेरा नहीं उस सोशल मीडिया का है जिसकी लहर पर सवार होकर मोदीजी के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और दिल्ली में परचम लहरा।

 मेरे लिए तो पार्लियामेंट में राम को रम, जानकी को जिन और बजरंगबली को ठर्रा प्रेमी बताने वाले मसखरे नरेश अग्रवाल एक दिन की सनसनीखेज खबर से ज्यादा कुछ भी नहीं हैं। उनके आने से रामभक्तों को कैसा लगा यह उनकी सोच का मामला है। मेरी सोच का मामला यह  है कि अगले लोकसभा चुनाव तक राजनीति की भुजंगनी और कैसे-कैसे करवट लेती है। 'हम भारत के लोग'में  एक मैं भी हूँ और भी जो हैं उनके लिए भी यह सोच का विषय है।

दिल्ली में कीर्तिपताका फहराने और 22 राज्यों में अश्वमेध के घोड़ों का खूँटा गाड़ने के बाद चक्रवर्ती सम्राट के रथ के पहियों से चर्रचूँ की आवाज़ इन दिनों सबको सुनाई दे रही है। अगले समर (अब चुनाव समर कहे जाते हैं,नारा याद होगा-ये युद्ध आरपार है, बस अंतिम प्रहार है) की तिथि न तय होती तो घोड़ों की हिनहिनाहट के बीच उस चर्रचूँ को अनसुना भी किया जा सकता था।

 राजनीति के भाष्यकारों से ये सुनते आए हैं कि दिल्ली का रास्ता यूपी होते हुए जाता है। यूपी में मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री द्वारा खाली की गई सीटों में पराजय अब तक चार वर्षों में सबसे बड़ा राजनीतिक संघात है ऐसा पैनलिया विश्लेषक मानते हैं। इससे पहले राजस्थान और पंजाब के उप चुनावों के परिणाम इतनी अहमियत वाले नहीं रहे। जाहिर है राजनीति की भुजंगनी ने करवट ली है, शिविर में इसकी आहट ही नहीं झन्नाहट है।

शरीर जब झन्न पड़ता है तो तके बैठे दूसरे मर्जों के वायरस भी अटैक करते हैं। आँध्र के दो राजनीतिक दलों द्वारा सरकार के प्रति अविश्वास प्रस्ताव की नोटिस ऐसा ही अटैक है। यद्यपि इससे सरकार के अपाहिज होने की संभावना शून्य है फिर भी- जिस बात का खतरा है समझो कि वो कल होगी..। 

राजनीति कुछ नहीं बल्कि संभावनाओं के गुणाभाग से चलती है और उसका अवसर सभी को मिल गया, मीडिया को तो और भी। 

यह अविश्वास प्रस्ताव मूर्खतापूर्ण है क्योंकि इसके पीछे समग्र राष्ट्र को लेकर कोई कुशंका नहीं है और न ही सरकार की विफलताओं का कोई ठोस एजेंडा। यह आँध्रप्रदेश के दो महत्वाकांक्षी नेताओं की सड़किया अदावत है जिसको निपटने लिए संसद का सदन चुना गया। 

कल तक एनडीए की घटक रही चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी दरअसल केंद्र सरकार से नहीं स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के बेटे जगनमोहन रेड्डी की पार्टी से लड़ रही है। आँध्र प्रदेश-तेलांगना में इन दिनों करो या मरो की स्थिति है। देखियेगा कल चंद्रशेखरराव भी कूद पड़ेंगे। मामला आँध्रप्रदेश को विशेष पैकेज देने का है। इस होड़ में रेड्डी आगे दिखें कि नायडू लड़ाई इसकी है। रेड्डी की टीडीपी जमी-जमाई है सो काँग्रेस और वामपंथी भी इसके पीछे हो लिए। 

कांग्रेस और अन्य बड़े दलों का इस अविश्वास प्रस्ताव में शामिल होने को भले मूर्खतापूर्ण कह लें पर इस प्रहसन से एक धुँधली सी तस्वीर स्पष्ट  हो ही जाएगी कि अगले चुनाव में विपक्ष के भावी गठबंधन की रूपरेखा कैसी होगी।

यह बात तो मानना ही होगा कि मित्र दलों को जोड़े रखने का जो कौशल अटलबिहारी वाजपेई में था वह नरेंद्र मोदी में नहीं है। वाजपेईजी हर बड़े फैसले में गठबंधनधर्म की दुहाई देते थे। प्रचार तंत्र ने मोदीजी का कद गठबंधन से भी बड़ा बना दिया है।औसत पाठक भी नहीं जानता कि राजग के घटक दल कौन-कौन हैं। 

दरअसल अटलबिहारी वाजपेई का समग्र व्यक्तित्व समुद्र की भाँति रहा है, जहाँ नद-नदी-नाले समभाव से समाहित हो जाते थे। वे श्रेय को लेकर कभी उतावले नहीं दिखे इसलिये राजनीति के इतिहास में उनके समय का गठबंधन केंद्र की राजनीति में सबसे आदर्श रहा।  वाजपेई जी के व्यक्तित्व के विपरीत मोदीजी की छवि एक ऐसे पहाड़ की हैं जिसकी दृढ चट्टानों में इतनी भी संधि नहीं कि कोई पनाह पा ले। कहना न होगा कि नदी-नद-नाले इसीलिए दूर छिटक रहे हैं। पहाड़ स्वभाव से तना हुआ, गर्वोन्नत और अपने कद का अभिमानी  होता है।

 राजग में भाजपा नहीं मोदीजी ही पर्वत की भाँति तने खड़े हैं भला वो नदी-नद-नालों की परवाह ही क्यों करें। तभी तो शिवसेना जैसे सधर्मी दल को रोज ब रोज  चिकोटी काटकर अपने होने का अहसास न दिलाना पड़ता।

2014 के मुकाबले जमीनी हकीकत बदल चुकी है। राजनीति की भुजंगनी कई बार उलट-पलट चुकी हैं। पिछले चुनाव के मर्म को समझें तो मालुम होगा कि भाजपा वहीं-वहीं ताकत के साथ उभरी थी जहाँ कभी काँग्रेस का आधार रहा है। प्रदेशों में क्षेत्रीय दलों को जनादेश देने वाले वोटरों ने दिल्ली के लिए नरेंद्र मोदी को इसलिए मुफीद माना क्योंकि वे कांग्रेस के प्रधानमंत्री को स्थानापन्न करने जा रहे थे। यूपी,बिहार,मध्यप्रदेश-छग,राजस्थान,महाराष्ट्र और गुजरात, यही वो राज्य थे जिन्होंने मोदीजी पर दिल खोलकर अपना भरोसा सौंपा। 

आज की स्थिति वैसी नहीं है। यूपी-बिहार के ताजा संकेत समझ सकते हैं। गुजरात के विधानसभा चुनाव काफी कुछ समझा चुके हैं। राजस्थान में इंकंबेंसी फैक्टर सबाब पर है, यह लोकसभा उपचुनाव के परिणामों ने बता दिया। मध्यप्रदेश से शुभ लक्षण नहीं दिख रहे। महाराष्ट्र में शिवसेना की किनाराकशी जारी है। कर्नाटक फिफ्टी-फिफ्टी की स्थिति में है। दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों से कोई खास उम्मीद नहीं। प.बंगाल में सवाल ही नहीं उठता नार्थ-ईस्ट में सुधार मानिए तो सीटों की संख्या निर्णायक नहीं। कुलमिलाकर 2013 से जो हवा बननी शुरू हुई थी यदि उसके बरक्स देखें तो कोई तात्कालिक चमत्कार न हुआ तो भविष्य की तस्वीर  कोई भी  देख सकता  है।

इस जमीनी हकीकत के बावजूद काफी कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि मोदी के खिलाफ बनने वाले गठबंधन की बागडोर किसके हाथ होगी। मुझे नहीं लगता कि राहुल गांधी सोनियाजी भाँति सर्वस्वीकार्य होंगे। यह बात अलग है कि राजस्थान, मप्र, छग, दिल्ली, कर्नाटक के विधानसभा चुनाव परिणाम राहुल गांधी के लिए रास्ता बना दें। 

यदि इनमें काँग्रेस सफल रही तो संभव है कि राहुल को सोनियाजी वाली हैसियत मिल जाए अन्यथा ममता बनर्जी और शरद पवार किसी भी सूरत में इन्हें अपना नेता नहीं मानेंगे हाल ही के संकेतों से ऐसा समझ में आता है।
एक संभावना कांग्रेस विहीन तीसरे गठबंधन की भी बनती है। ममता बनर्जी इस विकल्प को प्राथमिकता में लेकर चल रही हैं। यदि ऐसा हुआ तो भाजपा-कांग्रेस विहीन गठबंधन कमोबेस वैसा ही होगा जैसे देवेगौडा और गुजराल की सरकार का था। अविश्वास प्रस्ताव में विपक्ष की संभावी एकता का यह पहला लिटमसटेस्ट होगा इसके लिए भी दिन दूर नहीं हैं।

इन सबके बावजूद इस स्थिति को कोई नकार नहीं सकता कि नरेंद्र मोदी से बड़ा या उनकी जोड़ का कोई नेता विपक्ष में नहीं है। इस स्थिति में ..अबकी बार फिर मोदी सरकार का नारा चलेगा। खास बात यह होगी कि विपक्ष के निशाने पर राजग या भाजपा नहीं बल्कि मोदी होंगे। यानी कि समग्र विपक्ष से घिरे हुए। और यह स्थिति 1971 के इंदिरा गांधी के चुनाव के हालात लौटा सकते हैं। उस चुनाव में एक अकेली इंदिरा गांधी को देश की जनता ने साथ दिया था तमाम बीती बातों को भूलकर। 

कभी कभी छोटी घटनाएं बड़ा सबक दे जाती हैं। लोकसभा में संभावी अविश्वास प्रस्ताव और उपचुनावों के परिणाम एक तरह से सम्हलने के लिए सबक भी हैं। राजनीति में अगले क्षण क्या घटने वाला है यह सभी की समझ से दूर है क्यों? क्योंकि राजनीति तड़ित की तरह चंचल व भुजंग की भाँति कुटिल होती है।

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