"बजट का बूस्टर डोज किसके लिए..!" - जयराम शुक्ल
बजट का बूस्टर डोज किसके लिए!
- जयराम शुक्ल
मुद्दतों बाद ऐसा हुआ है जब बजट का सुर्ख शीर्षक बनाने में संपादकों के पसीने छूटे हैं..। कभी बजट पेश होने के एक दिन पहले अखबार के दफ्तर वार रूम में बदल जाते थे। दूसरे दिन इस बात का इंतजार रहता था कि..बजट की पंच लाइन देकर किसने खबर बाजार लूट लिया।
टीवी और बेवमीडिया ने साल में आने वाली ऐसी महाब्रेकिंग खबर के दहकते तवे में पानी की फुहार देने का काम किया है फिर भी बजट ऐसा मामला है कि आम नागरिकों की समझी और नासमझी इसके आड़े नहीं आती। इसका आँकलन कुछ-कुछ ऐसे होता है जैसे अंधे और हाथी वाली कथा। जिसका जिससे वास्ता पड़ता है उसे उसका वैसे ही रूप और आकार समझ में आता है।
राजनीति के क्षेत्र में बजट की समीक्षा की युगीन परंपरा रही है कि विपक्ष आँखें मूँदकर इसे दिशाहीन और जनविरोधी करार देता है तो सत्तापक्ष के वक्तव्य बजट पेश होने के पहले से ही तैयार रहता है- यह ऐतिहासिक और क्रांतिकारी बजट है जो देश की दिशा और दशा दोनों को ही बदलकर धर देगा। हर साल के बजट में ऐसी ही प्रतिक्रियाएं आती हैं, बदलता कुछ भी नहीं.. आम नागरिक की मुश्किलें जस की तस और कारपोरेट की पौबारह।
रही बात मीडिया एनालिसिस की तो अब वहाँ पत्रकार नहीं बल्कि पक्षकार बैठते हैं। सोशल मीडिया इसकी भी परते उधेड़ता चलता है। कल जैसे ही बजट पेश हुआ, एक वायरल संदेश से वास्ता पड़ा। ..दिमाग की ज्यादा मगजमारी न करें बजट के फायदे गिनना है तो जीन्यूज खोलिए और खोट ही खोट देखना है तो एनडीटीवी..। विशेषज्ञ भी गजब के हैं। कोई कारपोरेट का प्रवक्ता तो कोई आम नागरिक की ओर से खड़ा चिर विद्रोही। एक कहता है सब को सबकुछ मिला तो दूसरा इसे नकारते हुए तर्क देता है कि किसी को कुछ भी नहीं मिला। "सबको सबकुछ" और किसी को "कुछ भी नहीं" की बहस अगले बजट तक रह-रह कर भंग के तरंग की भाँति आती जाती रहती है।
बहरहाल अब मैं अपनी बात करता हूँ। एक औसत बुद्धि के नागरिक के नाते इस बजट को कैसे समझता हूँ। आप मुझसे सहमत-असहमत हो सकते हैं, यह अधिकार सुरक्षित है।
आमतौर पर बजट को कई मानदंडों पर देखा जाता है। पहला यह कि इसमें बेरोजगारी और मँहगाई की समस्या का कितना निदान सन्निहित है। मध्यमवर्ग को टैक्स से कितनी राहत है। क्या सस्ता हुआ और क्या मँहगा। दूसरा यह कि देश के समग्र विकास की कितनी दृष्टि है। कृषि, रक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, ग्रामीण और शहरी अधोसंरचना पर कितना ध्यान दिया गया। इस बजट में नवाचार क्या है?
पहले तो बता दें कि पहली नजर में मुझे बजट कैसा लगा..? इसका जवाब है कि कोरोना के इस गाढ़े वक्त और पंजाब, उत्तरप्रदेश समेत पाँच राज्यों में चल रहे चुनावों के मद्देनजर यह साहसिक बजट है जिसमें ऐसे कोई संकेत नहीं उभरते कि यहाँ के मतदाताओं के लिए लोकलुभावन जैसा कुछ है। बजट वस्तुनिष्ठ है और भविष्य की सोच का एक स्पष्ट खाका सामने रखता है। जैसा कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि देश स्वतंत्रता के अमृतमहोत्सव में पगा है..आगे के 25 वर्ष में क्या करने जा रहे हैं। पेंडेमिक की भाषा में कहें तो यह विकास का बूस्टर डोज है।
अब आते हैं उन पैमानों पर जिसकी चर्चा मैंने ऊपर की है। बेरोजगारी बड़ा सवाल है, कोरोना महामारी ने अवसर छीने हैं। सर्वे रिपोर्ट बताती है कि बेरोजगारी खतरनाक मुकाम पर खड़ी है। बेरोजगारी का बिना जिक्र किए ही कहा गया कि मेक इन इंडिया में 60 लाख, आत्मनिर्भर भारत में 20 लाख रोजगार सृजित होंगे। इसके लिए धन उपलब्ध कराया जाएगा, टेक्स में इन्सेंटिव का भी प्रावधान है। सरकारी नौकरियों के दिन अब लद गए। सेवा क्षेत्र आउटसोर्सिंग में चला गया। अभी तक हमारा माइंडसेट सरकारी भर्तियों से बेरोजगारी दूर करने का रहा है, उसे अब भूलना होगा। सो बेरोजगारी का आलम जैसा था वैसा ही रहने वाला, आबादी और पढ़ेलिखे की संख्या के साथ यह बढ़ेगी ही।
मँहगाई पर लगाम को लेकर भी कोई ठोस बात नहीं की गई। अलबत्ता अक्टूबर से पेट्रोलियम पर अतिरिक्त टैक्स इसे बढ़ाएगा ही। इनकम टैक्स में छूट को बजट से पहले स्वाती की बूँद की भाँति इंतजार रहता है..इस बार कोई छूट नहीं मिली। गनीमत यह कि ऊपर से कोई टैक्स लदा नहीं सो यथास्थिति पर ही संतोष करना होगा। सस्ती और मँहगी वस्तुओं का जिक्र न ही करें तो अच्छा.. क्योंकि यह सुनकर न तो आप हीरा खरीदने निकलपड़ेगे और न ही विदेशी छाते से परहेज करने लगेंगे..। सो कह सकते हैं कि मध्यवर्ग को जस का तस उसी हाल पर छोड़ा गया है। सो हम दुख व्यक्त कर सकते हैं कि इस बजट में हमारे अपने लिए कुछ भी नहीं है।
यदि हम 'मैं' से निकलकर आगे बढ़ें और देश के बारे में समग्रता से सोचें तो इस बजट को कई मामलों में सराह सकते हैं। अधोसंरचना के क्षेत्र में यह बजट लान्चपैड का काम करेगा। पीएम गतिशक्ति के जो सात इंजन्स चिन्हित किए गए हैं वे देश को आर्थिक महाशक्ति की ओर ले जाएंगे। अटलजी द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री सड़क योजना, स्वर्ण चतुर्भुज, भारतमाला जैसी सड़कों की परियोजनाओं को 2014 के बाद विस्तार मिला है और देखते देखते देश की सूरत बदली है। 25 हजार किलोमीटर के हाइवेज और भी काफी कुछ बदलेंगे। नार्थईस्ट और पर्वतीय क्षेत्रों के लिए सड़क परिवहन की पर्वतमाला.. सुदूर क्षेत्रों में संभावनाओं के नए द्वार खोलेगी। 400 बंदेभारत ट्रेन्स रेल्वे को रफ्तार युग में पहुँचाएगी। यह बजट प्रस्तुत होने के साथ ही शेयर बाजार में संसेक्स और निफ्टी का जो आतिशी मिजाज देखने को मिला वह इस बात का सूचक है कि भविष्य की योजनाओं पर बाजार का भरोसा पुख्ता हुआ है।
किसान नेताओं का एक वर्ग यह भ्रम फैलाने में लगा था कि एमएसपी के वायदे पर सरकार कायम नहीं रहेगी। किसानों के खाते में सीधे एमएसपी के भुगतान के ऐलान ने ऐसे तत्वों को किन्तु-परंतु तक सीमित कर दिया। एमएसपी के खेल में फँसे किसानों को धान और गेहूं से हटकर अन्नों की विविधता की ओर लाने की कोशिश की गई है। 2023 को मोटिया अन्न वर्ष घोषित किया गया है। तिलहन और दलहन की निर्भरता पर जोर दिया गया है। अभी खाद्यतेलों की बड़ी मात्रा आयातित होती है। आर्गेनिक खेती और ड्रोन जैसी उन्नत कृषि तकनीक पर जोर है। किसानों की सम्मान निधि यथावत रहेगी।
दशकों से सूखा-अकाल की विभीषिका झेलने वाले बुंदेलखंड में केन-वेतवा लिंक प्राण फूकेगी। 44500 करोड़ की इस परियोजना के लिए प्रथमतः 1400 करोड़ का प्रावधान है। नदियों को जोड़ने की पाँच अन्य योजनाओं का डीपीआर तैयार करने की बात की गई है। यद्दपि कांग्रेस के विद्वान नेता जयराम रमेश ने जैवविविधता और पर्यावरण की दृष्टि से इसे बर्बादी की ओर बढ़ा हुआ कदम बताया है। श्री रमेश को यह मालूम होना चाहिए कि नदियों को जोड़कर वाटर ग्रिड बनाने का विचार 1972 में तत्कालीन केंद्रीय सिंचाई मंत्री केएल राव की थी और तब कांग्रेस सरकार की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थी। नदियों का जोड़ा जाना और उससे जुड़े पर्यावरणीय खतरों के विवाद से फिलहाल केन-वेतवा परियोजना को भी दो-चार होना पड़ेगा।
कोरोना महामारी से सबक लेते हुए डिजिटल टीचिंग की अवधारणा को हकीकत में बदलने की बात की गई है। 200 चैनल्स से पढ़ाई होगी। डिजिटल यूनीवर्सिटी का विचार यथार्थ में बदलेगा। क्रिप्टोकरंसी पर नकेल कसी गई है तो आरबीआई डिजिटल करंसी जारीकर वित्तीय नवाचार करने जा रही है। सरकार की डिजिटल सोच तब तक व्यर्थ है जब तक कि बहुसंख्यक आबादी डिजिटली लिट्रैट न हो जाए..इसका कोई उपक्रम तो नहीं रचा गया है अलबत्ता यह कहा गया है कि 2025 तक हर गाँव तक आप्टिकल फाइबर के जरिए ब्राडबैंड पहुँच जाएगा।
मनमोहन सिंह की फ्लैगशिप योजना पीएमआरवाय का जिक्र नहीं किया गया यानी कि वह जस का तस रहेगी लेकिन मोदी की फ्लैगशिप योजना प्रधानमंत्री आवास का दायरा बढ़ाया गया है। एक वित्तीय वर्ष में 80 लाख प्रधानमंत्री आवास का लक्ष्य ग्रामीण व शहरी विकास को झोपड़ों और स्लम से मुक्त करने की दिशा में बड़ा कदम है।
बजट को समग्रता की दृष्टि से देखें तो विकास की रफ्तार देने वाला बूस्टर डोज साबित हो सकता है..लेकिन यह रफ्तार निःसंदेह मध्यवर्ग को किफायत का मास्क लगाकर देखना होगा.. बिना किसी निजी या वर्गीय उम्मीद के।