(बैतूल)  जनजातीय समुदाय की महिलाएँ बनेगी आत्मनिर्भर ,

- बिरसा मुंडा जयंती पर ग्रीन टाइगर्स की सार्थक पहल,

- तीन पुश्तों से हो रहा शुद्ध प्रकृति, पर्यावरण और स्वच्छता के लिए सतत कार्य ,

- माहोर और पलशे के पत्तों से बनाते हैं पत्राली और दोने
 
बैतूल (ईएमएस)/नवल-वर्मा । हैरत की बात है कि गाँव की 40 आदिवासी महिलाएं बना सकती है एक माह में 10 लाख दोने-पत्राली लेकिन जिला प्रशासन और सामाजिक स्तर पर नही मिल पा रहे सहयोग के चलते गांव में ही दम तोड़ रहा यह लघु उद्योग । जबकि वर्ष भर जँगल में मुफ्त उपलब्ध रहते हैं ये पौधों के पत्ते, अब इस दिशा में ग्रीन टाईगर्स बैतूल के जनक युवा तरूण वैद्य ने इनके इस रोजगार को अनवरत और स्थायी स्वरोजगार की दिशा में नया आयाम स्थापित करने को लेकर कमर कसी है।
हमें सुनने में यह हैरत की बात तो लगती हैं किन्तु वास्तव में यदि पर्यावरण और जल संरक्षण के लिए सक्रियता से सतत कार्य कर रहे ग्रीन टाइगर्स प्रमुख तरुण वैध और इन आदिवासी समुदाय की महिलाओं की आपसी चर्चा सुने तो सबकुछ स्पष्ट रूप से नज़र आ रहा है। बैतूल जिला मुख्यालय से मात्र 11 किमी दूर सतपुड़ा के घने जंगलों में बसा ग्राम बघवाड़ जहाँ की महिलाएं पिछले 200 वर्षों से लगातार हरे पत्तों की दोने-पतराली बनाने का कार्य करती आ रही है। अपने निवास स्थान ग्राम के ढाने से दैनिक कार्यों से निवृत होकर 2 से 10 किमी पैदल चलकर वनोपज को संग्रहित करने का कार्य इन लोगों के द्वारा किया जाता है। फसल कटाई , निदाई, स्व-सहायता समूह के कार्यों के अलावा इन महिलाओं द्वारा जंगल से माहोर और पल्से के पत्तों को जमा करके, उन्हें घर लाकर साफ करके, धूप में सुखाकर, एक आनंदमयी भोजन पात्र के रूप में तैयार किया जाता है। इनका ऐसा भी मानना है कि ईश्वर स्वयं इस पत्ते पर भोजन करने हमारे घर आते हैं और हमें आशीर्वाद देते हैं।
जिससे हमारे कृषि संबंधी सारे कार्य निर्बाध रूप से पूर्ण होते हैं। मजदूरी करने के साथ साथ गाँव वासियों की जीविकोपार्जन का मुख्य आधार यही कार्य हैं। गाँव के ढाने के 100 में से 70 घरों में यह पतराली-दोने बनाने का कार्य किया जाता है, किंतु खपत व् माँग नहीं होने से इन महिलाओँ का यह हस्तकौशल और हुनर अब धीरे धीरे समाप्ति की कगार पर आ चुका है। यदा कदा दो-पाच हज़ार सालाना का व्यवसाय अब यह लोग कर पा रहे हैं।
इस गाँव की सरपंच श्रीमती कमलाबाई भी लगातार इन कार्यों को करने के साथ इन्हें मदद भी करती हैं, किंतु आधुनिकता की इस दौड़ में इन्हें सही और व्यवस्थित मंच नही मिलने से अब इन लोगों के हस्तकौशल का स्थान पॉलीथिन व् कागज के बने बर्तनों ने ले लिया है।
पर्यावरण संरक्षण की दिशा में पॉलीथीन रूपी जहर की जगह ये इको फ्रेंडली दोने पत्तल सही विकल्प हैं। यदि जिला प्रशासन एवं सामाजिक स्तर पर महिलाओं के कार्यों को सतत सहयोग मिलेगा तो न सिर्फ पर्यावरण संरक्षण की ओर एक अनूठा कदम होगा बल्कि इन कार्यों से स्वरोज़गार व् आर्थिक सुदृढ़ता भी परिपोषित हो सकती है।
बहरहाल, ग्रीन टाइगर्स का ये सार्थक प्रयास है कि पर्यावरण हितैषी दोने पत्तल रूपी भारतीय संस्कृति की पहचान को न सिर्फ डूबने से बचाना है, बल्कि जनजातीय समुदाय के लोगों के इस कार्य को जिला मुख्यालय की डिस्पोजल की आवश्यकता से जोड़कर स्वरोज़गार प्रदान कर इन्हें आत्मनिर्भर बनाना है।
गौरतलब है कि आनलाईन कंपनी अमेजन पर पत्तों द्वारा निर्मित दोना 6 रु पत्तराली 13 रु तथा गिलास 10 रु का बिक रहा है।
अब बडा़ सवाल यह है कि क्या जिला योजना समिति , प्रशासन इसके लिये एक बड़ी यूनिट नहीं डाल सकता?  जिसमें जिले की वनोपज का संग्रहन ओर निर्माण कर अन्य बड़ी कंपनियों को बेचा जा सके ?
जिस प्रकार तेंदूपत्ता के लिए योजना है ठीक उसी प्रकार इन जनजातियों के लिए लघु अथवा कुटीर उद्योग के रूप में यह योजना नहीं लाई जा सकती ?
जबकि पॉलीथिन निर्मित वस्तुएं आसानी से उपलब्ध और सस्ती होने से हर व्यक्ति खरीदने जाता है ! उसकी जगह यह पत्तों से निर्मित दोने-पत्तल की उपलब्धता सुनिश्चित करे?  वहीं  1 जुलाई 2022 से लागू केंद्र सरकार के नियम का कड़ाई से पालन कर अमानक पॉलीथिन प्रतिबंधित कर दिया जाये तो यह कार्य  बैतूल जिले का गौरव बन सकता है।
नवल-वर्मा-ईएमएस-बैतूल 17 नवम्बर 2022