यूँ तो अपने बैतूल के लोग सुख-दुख में एक दूसरे के साथ ही नजर आते हैं। कुछ मन से कुछ बेमन से, कुछ नाम के लिये तो कुछ औपचारिकता के तौर पर..और हां कुछ इसलिए भी एक-दूसरे के साथ हो लेते हैं कि लोग क्या कहेंगे। हाल ही में बैतूलवासियों को बैतूल का शाब्दिक एक और अर्थ बयां करते हुए प्रख्यात पंडित प्रदीप मिश्रा ने तो यह तक कहा कि बे मतलब की बातों को जो तूल न दे वह बैतूल है। बात कितनी सही कह गए वह आप सब समझिये। पर बात कितनों के समझ आई और कितनों के लिये कह गए यह भी समझने की बात है। बैतूल बार-बार तूल पकड़ता रहा है.. मसले, मौके कई है.. पर उन्हें यहां गिनाने की जरूरत नही है। देश ने आजादी का अमृत महोत्सव मनाया अखण्ड भारत के केंद्र से हम सभी इस महोत्सव में अपनी भागीदारी निभाई और पूरी निष्ठा से निभाई, पूरी ईमानदारी दिखाई। बैतूल ने आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान 75 दिन 75 कदम अभियान के माध्यम से बैतूल की धरा को प्लास्टिक और कैंसर मुक्त बनाने का संकल्प लिया और 75 कदमों का अभियान अनवरत हो गया..क्योंकि बैतूल की धरती मुक्त नही हो पाई मनुष्य की लालसा, लोभ और स्वार्थ से। कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने काला कोट उतारकर चरखा थामकर आजादी का बिगुल फूंका था..नंगे पांव चलकर दांडी का उदाहरण पेश किया, सत्य और अहिंसा के पथ पर पग रखकर असहयोग को अस्त्र बनाया।
अक्सर यही कहा जाता है कि आदमी की सहनशीलता जब जवाब दे देती है, तब कही जाकर उसकी आँखों में नमी नज़र आती है। अपना बैतूल जितने जुझारू लोगों से भरा पड़ा है, उतना ही संवेदनशील भी है। एक ऐसे ही जुझारू और संवेदनशील व्यक्तित्व की आंखों में अब रोज नमी रहती हैं ..न जाने कितनी रातों से जागी आंखों में पीड़ा है, बेचैनी है.. यह दर्द की टीस  बेबसी की नहीं है..आंखों में नमी किसी शारीरिक पीड़ा से भी नही है। यह आंखे व्याकुल है जल, जंगल, जमीन के साथ मानव के पाश्विक व्यवहार की वजह से। धरती पॉलीथिन की परत से इस कदर ढक गई है अब इसका सांस लेना मुश्किल हो गया है। धरती की, जल की, जंगल की यह घुटन और असहनीय पीड़ा को समझने के लिये बस चंद सेकंड अपना चेहरा किसी प्लास्टिक से ढककर देख लीजिये। शायद एक शख्स की तरह हर शख्स की आंखों में वही नमी, वही संवेदनशीलता और अपनी धरती को बचाने की वही छटपटाहट होगी। वह खुद को धरती का सेवक कहता है.. धरती की सेवा के लिये उठे, जाने-अनजाने कदमों को नमन करता है। जिजीविषा और दृढ़ता की प्रत्यक्ष इबारत को बैतूल की सड़कों पर, तालाब के किनारे तो कभी खेल के मैदानों में इबादत करते आसानी से देखा जा सकता है। जब दिल बैचेन होता है तो यह शख्स निकल पड़ता है, कभी हाथ में झाड़ू लेकर, कभी दस्ताने पहनकर, कभी थैले लेकर, तो कभी हाथ में गैती, फावड़ा और कुदाल लेकर अपनी धरती माँ की जितनी बन पड़े उतनी ही हिफाजत करने। वह शख्स हर जिम्मेदार से सवाल करता हैं धरती, गंगा और गौ माता के साथ हो रहे अन्याय पर क्यों चुप है सब? पर आवाज गूंजती रहती है.. नक्कारखाने में तूती की तरह..धरती की बेचैनी को महसूस करते मैंने दो आंखों को अनवरत बहते देखा है..जिसने घातक बीमारियों से खुद जंग लड़ी औरों को लड़ना सिखाया वह खामोशी से शोर मचाता रहा है कई-कई बार। आज संघर्ष की मिसाल इस धरती के सेवक की आंखों से लालिमा छट नहीं रही..लिखकर, कहकर, चलकर, बताकर, दिखाकर, समझाकर वह सब जतन कर रहा है.. कि काश धरती की पीड़ा को कोई मरहम का फाहा मिल जाये और इसे माँ कहने वाले बच्चे इसे पॉलीथिन, प्रदूषण, कैंसर जैसी बेड़ियों से मुक्त कर दे...
हेमन्तचन्द्र बबलू दुबे भैया आपकी पीड़ा को शब्द देने की गुस्ताखी के लिये क्षमाप्रार्थी हूं...
✍️गौरी बालापुरे पदम ( नेशनल यूथ अवार्डी )
नवल-वर्मा-हेडलाईन-बैतूल 23 दिसम्बर 2022