14 जून को बैतूल में हुई घटनाओं को हमेशा-हमेशा के लिए याद रखा जाएगा। एक ओर गंभीर रक्तदान के विषय पर रक्त क्रांति वाहन रैली आगे बढ़ रही थी, वही दूसरी ओर बैतूल के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित महाविद्यालय में एक नौजवान होनहार प्राध्यापक का शरीर खून से लथपथ अपने जीवन की भीख मांगते तड़प रहा था। एक ओर प्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव मां ताप्ती का जलाभिषेक कर रहे थे, वही दूसरी ओर एक प्राध्यापक का शिक्षा के मंदिर में पीट-पीटकर खूनाभिषेक किया जा रहा था।
एक ओर बैतूल के इतिहास में गौरवशाली अध्याय लिखा जा रहा था, जब बैतूल की मिट्टी में पैदा हुआ एक गरीब शिक्षक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कैबिनेट में केंद्रीय राज्य मंत्री पद की शपथ लेने के बाद पहली बार अपनी पावन धरती पर कदम रखते हुए सहजता सरलता से अपने प्रियजनों को गले लगा रहा था। वहीं दूसरी ओर एक संस्कृत का शिक्षक भारत की महान संस्कृति के श्लोकों का अध्ययन, पठन-पाठन करते हुए धरती पर लहूलुहान पड़ा हुआ था।
हिंसा किसी भी रूप में हो, किसी के साथ भी हो, निंदनीय, असहनीय और पीड़ादायक है। सभ्य समाज में हिंसा का कोई स्थान नहीं है और शिक्षा के मंदिर में तो कदापि उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है। दुख तो तब होता है जब यह समाज यह सब होता देख उसका समुचित आंदोलनात्मक प्रतिकार करने में असमर्थ दिखलाई पड़ता है। किसी को भी इस घटना का कोई रोष या रंज नहीं। बड़े-बड़े कर्मचारी संगठन हैं, अधिकारी संघ हैं, वेतन वृद्धि के लिए तो बड़े-बड़े आंदोलन हैं, हड़तालें हैं लेकिन समाज में हो रहे इस प्रकार के असहनीय कृत्यों के लिए कोई आवाज नहीं है। युवाओं के बड़े-बड़े संगठन हैं, सामाजिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक संगठन हैं सबके मुंह मानो ताला पड़ गया हो। ऐसा लगता है कि बैतूल जीवित इंसानों का नहीं मुर्दों का शहर है, जो केवल रैलियों, स्वागत में डी.जे. लगाकर शोर मचाते हैं, पॉलीथिन, प्लास्टिक सड़कों पर बेरहमी से फेंकते हुए केवल डांस कर सकते हैं। पर सच का सामना करने में वह दुम दबाकर भागने में सफल होते नजर आते हैं।
समाज में किसी भी प्रकार की हिंसा का कोई स्थान नहीं है। वह सर्वत्र निंदनीय है और हिंसा की घोर निंदा की जानी चाहिए चाहे वह कहीं भी हो, किसी भी रूप में हो।

आलेख - हेमन्तचन्द्र बबलू दुबे