धर्म के बारे में भिन्न-भिन्न अवधारणाएं हैं। कुछ जीवन के लिए धर्म की अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं। कुछ लोगों का अभिमत है कि धर्म ढकोसला है। वह आदमी को पंगु बनाता है और रूढ़ धारणाओं के घेरे में बंदी बना लेता है। शायद इन्हीं अवधारणाओं के आधार पर किसी ने धर्म को अमृत बताया और किसी ने अफीम की गोली। ये दो विरोधी तत्व हैं। इन दोनों ही तथ्यों में सत्यांश हो सकता है, यह अनेकांतवादी चिंतन का फलित है। धर्म की अनिवार्यता स्वीकार करने वालों के लिए धर्म है अंधकार से प्रकाश की यात्रा। आलोक आदमी के भीतर है। उसे पाने के लिए इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं है। आलोक तक वही पहुंच सकता है, जो अंतमरुखी होता है। अंतमरुखता धर्म है और बहिर्मुखता अधर्म है। अंतमरुखता प्रकाश है और बहिर्मुखता अंधकार है। अंतर्मुखता धर्म है और बहिर्मुखता अधर्म है। अंतर्मुखता आचार है और बहिमरुखता अतिचार है। जो व्यक्ति जितना भीतर झांकता है, उतना ही धर्म के निकट होता है।  
धर्म को मानने वाले वे प्रबुद्ध लोग हैं जिन्होंने पूजा और उपासना को ही धर्म मान लिया। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा आदि धर्म-स्थानों में जाने वाले व्यक्तियों के हर आचरण को धर्म समझ लिया। धार्मिक क्रियाकांडों तक जिनकी पहुंच सीमित हो गई और धार्मिकों की दोहरी जीवनपद्धति को देखकर जो उलझ गए। भगवान महावीर अपने युग के सफल धर्म-प्रवर्तक थे। धर्म को जानने या पाने के लिए उन्हें किसी परंपरा का अनुगमन नहीं करना पड़ा। उन्होंने उस समय धर्म के द्विविध रुप का निरूपण किया। उनकी दृष्टि में धर्म का एक रूप अमृतोपम था तो दूसरा प्राणलेवा जहर जैसा।